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लुप्त होने से बचाएं, पारम्परिक व्यंजन….

कहते है, दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है। अच्छा स्वादिष्ट भोजन हर किसी को तृप्त और खुश कर देता है। अच्छा व स्वादिष्ट भोजन करना किसे पसंद नही होगा। इसलिए हमारी भारतीय संस्कृति और परम्पराओं में भोजन को विशेष महत्व दिया गया है। पारम्परिक भोजन पूर्ण रुप से सेहतमंद होता है। क्योंकि इसमें प्रोटीन, विटामिन, केल्शियम, कार्बोहाइड्रेट इत्यादि प्रचुर मात्रा में होते है।

पारम्परिक भोजन में तरह-तरह के मसाले डाले जाते जो की अत्यधिक स्वास्थ्य वर्धक होने के साथ-साथ तनाव भी दूर करता है। सभी तीज-त्यौहारों पर विशेष तरह का भोजन व मिठाईयां बनाई जाती हैं। अलग-अलग प्रांत व जाति समाज में अलग अलग तरह का भोजन बनाया खाया जाता है।

आज से कुछ वर्षों पहले तक, लड़की को शादी के लिए लड़का देखने आता था तो, लड़के वाले पहला प्रश्न यही पूछते थे, कि लड़की को खाना बनाना आता है,या नही, इसके बाद दूसरी बाते पूछी जाती थी। किंतु जैसे जैसे आधुनिकता व पाश्चात्य संस्कृति का चलन बढ़ा वैसे -वैसे प्रश्न भी बदल गए है। आज लड़के वाले पहला प्रश्न पूछते है, लड़की का पैकेज क्या है? कौनसी कम्पनी में काम कर रही है? आज बहुत कुछ धीरे-धीरे बदलता जा रहा है। पहले लड़कियां सिलाई-बुनाई,कढाई और पाक कला में निपुण हुआ करती थी,किंतु आज समय के साथ ये सब चीजे तो लुप्त होती जा रही है।

कुछ दशकों पहले, पाक कला-रसोई कला हर लड़की का गहना जेवर हुआ करता था। लड़की जैसे ही थोड़ी सयानी हुई की मां सभी पारम्परिक भोजन व मिठाईयां बनाना सिखाने लग जाती थी। हर मां अपनी बेटियों को अच्छा भोजन बनाने के लाभ बताया करती थी। अच्छा भोजन व मिठाई प्रेम जताने का सबसे सरल तरीका हुआ करता था। स्वादिष्ट भोजन अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का आसान तरीका हुआ करता था। मां-पिताजी, भाई-बहन पति, रिश्तेदार, दोस्तो को उनकी पसंद का भोजन व मिठाई बनाकर खिलाना, इस तरह हम अपनों को खुश कर सकते थे। किंतु अब यह सब बहुत कम जगह सुनने और देखने को मिलता है। यदि घर पर चार मेहमान आ जाते है, तो रेस्टोरेंट से भोजन लाया जाता है। आज की युवा पीढ़ी रसोई बनाना गैर जरूरी(फालतू का काम) समझने लगी है।

कुछ दिनो पहले मेरे घर मेरी सहली की बेटी और उसकी सहेली आई (उम्र 17-18)। मैने उनको चाय-नाश्ता कराया, उनसे मेरी दोस्तो की तरह बातें चल रही थी,बातों बातों में,मैने पूछा उनसे क्या-क्या पका लेती हो,तो सहेली की बेटी बोली आंटी मैं तो मेगी बना लेती हूं,फिर उसकी सहेली से पूछा तो वो बोली मुझे तो चाय बनाना भी नही आती है। मैने पूछा, क्यों तुमको पसंद नही खाना बनाना? तो कहने लगी, नही आंटी मुझे बिल्कुल पसंद नही खाना बनाना। मैं कोई उच्च पद की नौकरी करुंगीं तो मेरे पास तो वैसे भी बहुत से रसोई बनाने वाले होंगे, मैं खाना बनाकर अपना समय बर्बांद क्यों करू? फिर मैने बहस करना मुनासिब नही समझा। लेकिन उसका प्रश्न मुझे सोचने पर मजबूर कर रहा था। आज की युवतियां खाना बनाने को फालतू काम क्यों समझ रही है?

आजकल भोजन बनाने की कला को पुरूष ज्यादा अच्छी तरह से सम्भाल रहे है। लेकिन वही पुरूष सम्भाल रहे है, जो इसे अपना व्यवसाय बनाना चाहते है, अन्यथा वह भी रुचि नही रखते है। आज की युवतियों की आर्थिक महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई है। वह अत्यधिक भौतिक सुख पाने की लालसा में स्वयं व परिवार को अच्छा भोजन कराना भी भूल गई है। आज की युवा पीढ़ी अपनी सेहत के साथ अब खिलवाड़ करने लगी हैं। आज वह इंस्टेंट बनने वाले भोजन को प्राथमिकता देने लगी हैं। फिर चाहे वह नुकसानदायक क्यो न हो? आजकल की युवतियां स्वयं व अपने परिवार के सेहत के साथ खिलवाड़ कर रही है। कई लोग तो डिब्बाबंद भोजन को अपने दैनिक भोजन में पूर्णं रुप से शामिल कर चुके हैं। जिसके कारण प्रिःारवेटिव व डिब्बाबंद भोजन का बाजार धढ़ल्ले से चल रहा है। जिसके कारण हमारी इम्युनिटी पावर (प्रतिरोधक क्षमता) दिनों-दिन कम होती जा रही है। जिसके कारण हम जल्दी बीमार हो जाते है।

आज की युवा पीढ़ी अपनी व्यस्त जीवन शैली में घर के बने भोजन को भूलते जा रहे है। अलग-अलग प्रांत में विभिन्न प्रकार के पकवान व मिठाईयां बनाई जाती है। जैसे-महाराष्ट्र में झुणका भाकर, अनारसे, चिरोंटे,…। राजस्थान में केरसांगरी, हल्दी की सब्जी, कुमटिया, कसार,….। गुजरात में उंधियों, मुठियों,….। साउथ इंडिया में एरिसालू, अवियल, सकिनालू, डबल मीठा, सरवापिंडी, चेकालू, गारजिलू,….ऐसी अनेक पारम्परिक पकवान व मिठाईयां है,जिसे आज की युवा पीढ़ी भूल चुकी है। आज कई मिठाईयां हमारे बीच से लुप्त हो चुकी है। पारम्परिक पकवान भी बहुत कम जगह देखने को मिलते है। हमारे पारम्परिक पकवान व मिठाईयां हमारी धरोहर है, इन्हे लुप्त होने से बचाना चाहिए।

नोट-यह रचना पूर्णत: मौलिक व अप्रकाशित है।

वैदेही कोठारी
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका)
48 राजस्व कालोनी रतलाम

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