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मध्यप्रदेश की पुलिस और राजनीति

Special Report

मंदसौर, 21 जून । भले ही यह कहा जाए कि भारत में पुलिस स्वतंत्र रूप से कार्य करती है पर इसका कोई भी सबूत किसी को ढूंढने से भी नहीं मिलेगा । ऐसी बात भी नहीं है कि इस मुद्दे पर कभी विचार नहीं हुआ है पर सारे विचार यहां की राजनीति के सामने घुटने टेक देते है । पुलिस का स्वतंत्र नहीं होना किसी भी प्रदेश व देश की न्याय व्यवस्था को बहुत ज्यादा लचर बना देता है, जिसके बाद न्याय प्रणाली का होना और ना होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है ।

यह बात कैसे सोची जा सकती है कि पुलिस किसी राजनीतिक पार्टी के अधीन रहकर समाज और देश के लिए काम कर सकती है । भारत मेंसत्ता परिवर्तन के साथ-साथ सबसे पहला काम यह होता है कि जितनी जल्दी हो सके पुलिस को अपने साथ मिला लिया जाए और ऐसा होता भी रहा है ! जहां सत्ता परिवर्तन के साथ पुलिस अपने पिछले मालिक को छोड़ कर नए मालिक की दास्ता कबूल कर लेती है !

हालांकि, कुछ ऐसे मामले भी है जो पुलिस के ऊपर गर्व करने का मौका देते है पर ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि पुलिस अपने आप को साबित करने में नाकाम  ही साबित रही है । पुलिस रिफार्म तथा पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार को लेकर ना जाने क्यों हमेशा राजनीति खामोश पड़ जाती है और यही कारण है जो पुलिस को कमजोर बनाता है ।

जहां राजनीति मुद्दों पर संसद को अत्यधिक दिन चलाया जा सकता है तो आखिर किन कारणों से एक दिन पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए चर्चा नहीं की जा सकती है । अगर सही मायनों में देश को अपराध मुक्त करना है या अपराध के दरों में कमी करनी है तो पुलिस को वो सभी अधिकार देने होंगे जिन पर उनका अधिकार है ।

पुलिस कार्यों में बढ़ती राजनीति दखलअंदाजी चिंता का विषय है । मध्यप्रदेश के यह हाल हो गए है कि अब अपराध दर्ज करना न करना पुलिस नहीं बल्कि नेता/राजनेता तय करने लगे है । यदि पुलिस राजनेताओं के इशारों पर ही चलने लगेगी तो फिर इससे पारदर्शिता की क्या उम्मीद की जा सकती है ?

वैसे पुलिस विभाग में राजनीति हस्तक्षेप होना कोई नई बात नहीं है । पहले भी पुलिस में राजनीति दखलअंदाजी होती थी लेकिन यह तबादलों तक ही सिमटी हुई थी । अपने कार्यकर्ताओं पर छोटे-मोटे मुकदमों को लेकर नेता पुलिस का सहयोग लेते थे मगर हालात अब तेजी से बदलने लगे है । अपने राजनीतिक फायदे-नुकसान के लिए अब  राजनेता पुलिस को इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहे है !

अच्छे जिले अथवा थाने-चौकियों की चाह रखने वाले पुलिसकर्मी अपने उच्चाधिकारियों से ज्यादा अपने आकाओं की सुन रहे है । ऐसा नहीं है कि उच्च अधिकारियों को इसकी जानकारी नहीं है मगर वे भी अपने को बेबस सा महसूस कर रहे है ।

सरकार निश्चित रूप से अपने पसंद के ही अधिकारियों को ही महत्वपूर्ण ओहदों पर तैनात करती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि थाने स्तर पर तैनाती के लिए राजनीतिक दबाव डाला जाए। सरकार व जनप्रतिनिधियों को पुलिस को अपने इशारों पर नचाने की सोच को बदलना होगा ! यदि सरकार सही मामलों में प्रदेश की सुरक्षा मजबूत करना चाहती है तो उसे पुलिस के कार्यों में आवश्यक दखल अंदाजी से बचना होगा । पुलिस को दबाव मुक्त होकर कार्य करने के लिए उचित कदम उठाने होंगे । बेहतर काम करने वालों को आगे बढ़ने के अवसर देने होंगे । राजनीति संरक्षण प्राप्त कर एक ही थाने पर बरसों से जमे आरक्षक, प्रधान आरक्षक, एएसआई को जिलों से बाहर रवानगी देनी होगी तभी प्रदेश और जिलों में बेहतर पुलिसिंग की उम्मीद की जा सकती है ।

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