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सत्य का साक्षात्कार: कोरोना

मैंने अपने जीवन में कई समाज सुधारकों के बारे में पढ़ा है जैसे: राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, मदर टेरेसा इत्यादि, परंतु सुधार की इस परिवर्तन यात्रा में उन्हें कई वर्षो का समय लगा। इसके विपरीत स्थितियों को समझने एवं उसे सुधारने में एक अदृश्य विषाणु अल्प समय में इतना वृहद परिवर्तन कर देगा यह तो अकल्पनीय था। सच्चे रिश्तों में अंतर को पहचानने की भूमिका भी कोरोना ने बखूबी सिखाई है। कई खोखली प्रथाओं, झूठे आडंबरों से पर्दा उठाने के लिए तो कोरोना का हृदयतल से धन्यवाद किया जाना चाहिए। कोरोना ने तो अर्थ (धन) को भी अनर्थ को रोकने में अपाहिज बना दिया। शक्ति (पद और पहचान) भी प्राणों को बचाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकी। ”जन्म-मृत्यु नियति की देन है” यह सत्य तब समझ आया, जब कई जनमानस विषम परिस्थितियों में भी स्वस्थ होकर जीवन का आनंद लेने लगे और पर्याप्त सुविधा सम्पन्न होते हुए भी कई लोग काल का ग्रास बन गए।

कोरोना कालाबाजारी में एक ओर कई लोगों का आतंकवादी रूप प्रत्यक्ष हुआ, वहीं कई पुण्यात्माओं ने मानवसेवा में अपना योगदान देकर इंसानियत की राह में अपना कद बढ़ा लिया। हर समय जान देने की बात करने वाले लोगों ने भी किनारा कर लिया और कई लोगों ने अप्रत्यक्ष रूप से मनोबल बढ़ाकर, सलाह देकर यथार्थ धरातल पर मानवता की सेवा में अपना योगदान दिया। अंधविश्वासों के दुष्कर परिणाम भी कोरोना ने दिखाए और ज्ञान-विज्ञान की सत्यता को भी प्रमाणित रूप प्रदान किया। हमें सही अर्थों में आत्मनिर्भर बनना होगा इसका कोरोना ने हमें ज्ञान कराया। समय रहते स्थितियों के सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता को भी कोरोना ने उजागर किया।

कोरोना ने भूख की चीख को भी तीव्रता प्रदान की। पाश्चात्य संस्कृति की वास्तविकता वर्तमान परिस्थितियों में सामने आई और भारतीय संस्कृति की महत्ता समझ आई। हम चाँद-सितारों की यात्रा को करने में तो सक्षम हुए पर समाप्त होती जीवन यात्रा को बचाने में हम असमर्थ रहें। इंसान ने ही इंसान और इंसानियत को लूटा। कोरोना काल ने श्वासों का व्यापार दिखाया। हवा में जहर घुलने, अपनों का संग व पर्याप्त जरूरी संसाधन न मिलने से झुंझलाहट, बेबसी और अश्रुधारा चहु ओर दिखाई दी। कोरोना कहर के बीच तो शवो को भी शमशान में कतार में लगना पड़ा।

बीते वर्षों में कोरोना काल ने हमें कई सत्य से साक्षात्कार कराया है। सीमित संसाधनों के बीच भी हर्ष से जीवन यापन करना संभव है। समाज में कुरीतियों, अंधविश्वासों, अफवाहों को समाप्त करने की नितांत आवश्यकता है। स्वच्छता के नियम पहले भी जरूरी थे और आज भी। ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में संतुलन आवश्यक है, किसी भी प्रकार की अति और अल्पता का यहाँ कोई स्थान नहीं है।

डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)

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